इक नया कर्ब मिरे दिल में जनम लेता है
इक नया कर्ब मिरे दिल में जनम लेता है
क़ाफ़िला दर्द का कुछ देर जो दम लेता है
रंग पाता है मिरे ख़ून-ए-जिगर से गुल-ए-शे'र
सब्ज़ा-ए-फ़िक्र मिरी आँख से नम लेता है
आबरू हक़्क़-ओ-सदाक़त की बढ़ा देता है
जब भी सुक़रात कोई साग़र-ए-सम लेता है
रात के साए में शबनम के गुहर ढलते हैं
रात की कोख से ख़ुर्शीद जनम लेता है
ज़ेहन बे-नाम धुँदलकों में भटक जाता है
आज फ़नकार जो हाथों में क़लम लेता है
जिस को हो दौलत-ए-एहसास मयस्सर 'ताइब'
चैन वो कार-गह-ए-ज़ीस्त में कम लेता है
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