इक दर्द सा पहलू में मचलता है सर-ए-शाम
इक दर्द सा पहलू में मचलता है सर-ए-शाम
जब चाँद झरोके में निकलता है सर-ए-शाम
बे-नाम सी इक आग दहक उठती है दिल में
महताब जो ठंडक सी उगलता है सर-ए-शाम
कुछ देर शफ़क़ फूलती है जैसे उफ़ुक़ पर
ऐसे ही मिरा हाल सँभलता है सर-ए-शाम
ये दिल है मिरा या किसी कुटिया का दिया है
बुझता है दम-ए-सुब्ह तो जलता है सर-ए-शाम
बनता है वो इक चेहरा कभी गुल कभी शोला
साँचे में ख़यालों के जो ढलता है सर-ए-शाम
छट जाती है आलाम-ए-ज़माना की सियाही
जब दौर तिरी याद का चलता है सर-ए-शाम
मैं दूर बहुत दूर पहुँच जाता हूँ 'ताइब'
रुख़ सोच का धारा जो बदलता है सर-ए-शाम
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