ये हुनर भी बड़ा ज़रूरी है
कितना झुक कर किसे सलाम करो
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शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए
बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
ऐ दिल ख़ुशी का ज़िक्र भी करने न दे मुझे
बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
सिर्फ़ ज़बाँ की नक़्क़ाली से बात न बन पाएगी 'हफ़ीज़'
लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे
आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें
गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला
दार-ओ-रसन ने किस को चुना देखते चलें
रसा हों या न हों नाले ये नालों का मुक़द्दर है
तमाम रात आँसुओं से ग़म उजालता रहा
क्या जाने क्या सबब है कि जी चाहता है आज