शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए
मोहतरम की बात को झुटलाएँ क्या
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इक अजनबी के हाथ में दे कर हमारा हाथ
मय-ख़ाने की सम्त न देखो
लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे
दार-ओ-रसन ने किस को चुना देखते चलें
चाहे तन मन सब जल जाए
बाद-ए-सबा ये ज़ुल्म ख़ुदा-रा न कीजियो
सिर्फ़ ज़बाँ की नक़्क़ाली से बात न बन पाएगी 'हफ़ीज़'
बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला
आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें
क्या जाने क्या सबब है कि जी चाहता है आज