मय-ख़ाने की सम्त न देखो
जाने कौन नज़र आ जाए
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लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे
बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
वो वक़्त का जहाज़ था करता लिहाज़ क्या
अभी से होश उड़े मस्लहत-पसंदों के
बाद-ए-सबा ये ज़ुल्म ख़ुदा-रा न कीजियो
रसा हों या न हों नाले ये नालों का मुक़द्दर है
इस दीवाने दिल को देखो क्या शेवा अपनाए है
पी कर चैन अगर आया भी कितनी देर को आएगा
शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए
कौन कहता है कि महरूमी का शिकवा न करो
इक अजनबी के हाथ में दे कर हमारा हाथ