इक अजनबी के हाथ में दे कर हमारा हाथ
लो साथ छोड़ने लगा आख़िर ये साल भी
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कौन कहता है कि महरूमी का शिकवा न करो
तमाम रात आँसुओं से ग़म उजालता रहा
आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें
ऐ दिल ख़ुशी का ज़िक्र भी करने न दे मुझे
ये भी तो सोचिए कभी तन्हाई में ज़रा
सिर्फ़ ज़बाँ की नक़्क़ाली से बात न बन पाएगी 'हफ़ीज़'
बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला
बाद-ए-सबा ये ज़ुल्म ख़ुदा-रा न कीजियो
बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
हाए वो नग़्मा जिस का मुग़न्नी