बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
मर जाइयो मगर ये गवारा न कीजियो
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इक अजनबी के हाथ में दे कर हमारा हाथ
रसा हों या न हों नाले ये नालों का मुक़द्दर है
बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला
सिर्फ़ ज़बाँ की नक़्क़ाली से बात न बन पाएगी 'हफ़ीज़'
बाद-ए-सबा ये ज़ुल्म ख़ुदा-रा न कीजियो
लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे
ये भी तो सोचिए कभी तन्हाई में ज़रा
शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए
बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
हाए वो नग़्मा जिस का मुग़न्नी
वो वक़्त का जहाज़ था करता लिहाज़ क्या