अब खुल के कहो बात तो कुछ बात बनेगी
ये दौर-ए-इशारात-ओ-किनायात नहीं है
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हर सहारा बे-अमल के वास्ते बे-कार है
इक अजनबी के हाथ में दे कर हमारा हाथ
बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें
कौन कहता है कि महरूमी का शिकवा न करो
हाए वो नग़्मा जिस का मुग़न्नी
सितम की तेग़ ये कहती है सर न ऊँचा कर
मय-ख़ाने की सम्त न देखो
शीशा टूटे ग़ुल मच जाए
बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला