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गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला - हफ़ीज़ मेरठी कविता - Darsaal

गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला

गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला

जो क़हक़हों में गँवाया था चश्म-ए-तर से मिला

तअ'ल्लुक़ात के ऐ दिल हज़ार पहलू हैं

न जाने मुझ से वो किस नुक़्ता-ए-नज़र से मिला

कभी थकन का कभी फ़ासलों का रोना है

सफ़र का हौसला मुझ को न हम-सफ़र से मिला

मैं दूसरों के लिए बे-क़रार फिरता हूँ

अजीब दर्द मुझे मेरे चारा-गर से मिला

हर इंक़लाब की तारीख़ ये बताती है

वो मंज़िलों पे न पाया जो रहगुज़र से मिला

न मैं ने सोज़ ही पाया न इस्तक़ामत ही

हजर हजर को टटोला शजर शजर से मिला

'हफ़ीज़' हो गया आख़िर अजल से हम-आग़ोश

तमाम शब का सताया हुआ सहर से मिला

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