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बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला - हफ़ीज़ मेरठी कविता - Darsaal

बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला

बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला

जब इंक़लाब के लहजे में बे-ज़बाँ बोला

तकोगे यूँही हवाओं का मुँह भला कब तक

ये ना-ख़ुदाओं से इक रोज़ बादबाँ बोला

चमन में सब की ज़बाँ पर थी मेरी मज़लूमी

मिरे ख़िलाफ़ जो बोला तो बाग़बाँ बोला

यही बहुत है कि ज़िंदा तो हो मियाँ-साहब

ज़माना सुन के मिरे ग़म की दास्ताँ बोला

हिसार-ए-जब्र में ज़िंदा बदन जलाए गए

किसी ने दम नहीं मारा मगर धुआँ बोला

असर हुआ तो ये तक़रीर का कमाल नहीं

मिरा ख़ुलूस मुख़ातब था मैं कहाँ बोला

कहा न था कि नवाज़ेंगे हम 'हफ़ीज़' तुझे

उड़ा के वो मिरे दामन की धज्जियाँ बोला

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