ज़ाहिद शराब-ए-नाब हो या बादा-ए-तुहूर
पीने ही पर जब आए हराम ओ हलाल क्या
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अख़ीर वक़्त है किस मुँह से जाऊँ मस्जिद को
तंदुरुस्ती से तो बेहतर थी मिरी बीमारी
बुत-कदा नज़दीक काबा दूर था
वस्ल में आपस की हुज्जत और है
उन की यकताई का दावा मिट गया
जब तक कि तबीअ'त से तबीअत नहीं मिलती
जब न था ज़ब्त तो क्यूँ आए अयादत के लिए
पी हम ने बहुत शराब तौबा
आशिक़ की बे-कसी का तो आलम न पूछिए
करना जो मोहब्बत का इक़रार समझ लेना
'हफ़ीज़' वस्ल में कुछ हिज्र का ख़याल न था