ज़ाहिद को रट लगी है शराब-ए-तुहूर की
आया है मय-कदे में तो सूझी है दूर की
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आशिक़ की बे-कसी का तो आलम न पूछिए
जाओ भी जिगर क्या है जो बेदाद करोगे
अफ़्सुर्दगी-ए-दिल से ये रंग है सुख़न में
इसी ख़याल से तर्क उन की चाह कर न सके
यही मसअला है जो ज़ाहिदो तो मुझे कुछ इस में कलाम है
यूँ उठा दे हमारे जी से ग़रज़
काबा के ढाने वाले वो और लोग होंगे
आग़ाज़-ए-मोहब्बत में बरसों यूँ ज़ब्त से हम ने काम लिया
सच है इस एक पर्दे में छुपते हैं लाख ऐब
जब मिला कोई हसीं जान पर आफ़त आई
आप ही से न जब रहा मतलब
मिरे बुत-ख़ाने से हो कर चला जा काबे को ज़ाहिद