याद आईं उस को देख के अपनी मुसीबतें
रोए हम आज ख़ूब लिपट कर रक़ीब से
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शब-ए-वस्ल है बहस हुज्जत अबस
'हफ़ीज़' वस्ल में कुछ हिज्र का ख़याल न था
क़ैद में इतना ज़माना हो गया
आप ही से न जब रहा मतलब
जो दीवानों ने पैमाइश की है मैदान-ए-क़यामत की
वो हसीं बाम पर नहीं आता
शब-ए-विसाल लगाया जो उन को सीने से
गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
शब-ए-विसाल ये कहते हैं वो सुना के मुझे
ओ आँख बदल के जाने वाले
अजब ज़माने की गर्दिशें हैं ख़ुदा ही बस याद आ रहा है
उस को आज़ादी न मिलने का हमें मक़्दूर है