थे चोर मय-कदे के मस्जिद के रहने वाले
मय से भरा हुआ है जो ज़र्फ़ है वज़ू का
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हसीनों से फ़क़त साहिब-सलामत दूर की अच्छी
क़ैद में इतना ज़माना हो गया
इधर होते होते उधर होते होते
बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है
बहुत दूर तो कुछ नहीं घर मिरा
मुसीबतें तो उठा कर बड़ी बड़ी भूले
दीवाने हुए सहरा में फिरे ये हाल तुम्हारे ग़म ने किया
अख़ीर वक़्त है किस मुँह से जाऊँ मस्जिद को
जाओ भी जिगर क्या है जो बेदाद करोगे
कहीं मरने वाले कहा मानते हैं
क़ासिद ख़िलाफ़-ए-ख़त कहीं तेरा बयाँ न हो