तंदुरुस्ती से तो बेहतर थी मिरी बीमारी
वो कभी पूछ तो लेते थे कि हाल अच्छा है
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कभी मस्जिद में जो वाइज़ का बयाँ सुनता हूँ
वो हसीं बाम पर नहीं आता
ज़ाहिद को रट लगी है शराब-ए-तुहूर की
कहा ये किस ने कि वादे का ए'तिबार न था
यही मसअला है जो ज़ाहिदो तो मुझे कुछ इस में कलाम है
दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के
शिकवा करते हैं ज़बाँ से न गिला करते हैं
इसी ख़याल से तर्क उन की चाह कर न सके
उन की ये ज़िद कि मिरे घर में न आए कोई
पी कर दो घूँट देख ज़ाहिद
सुन के मेरे इश्क़ की रूदाद को
किसी को देख कर बे-ख़ुद दिल-ए-काम हो जाना