सच है इस एक पर्दे में छुपते हैं लाख ऐब
यानी जनाब-ए-शैख़ की दाढ़ी दराज़ है
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दीवाने हुए सहरा में फिरे ये हाल तुम्हारे ग़म ने किया
मिरे बुत-ख़ाने से हो कर चला जा काबे को ज़ाहिद
लिख दे आमिल कोई ऐसा ता'वीज़
'हफ़ीज़' वस्ल में कुछ हिज्र का ख़याल न था
आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो
क़ैद में इतना ज़माना हो गया
पी कर दो घूँट देख ज़ाहिद
हसीनों से फ़क़त साहिब-सलामत दूर की अच्छी
पहुँचे उस को सलाम मेरा
दिल पर लगा रही है वो नीची निगाह चोट
जान ही जाए तो जाए दर्द-ए-दिल
मिज़्गाँ हैं ग़ज़ब अबरू-ए-ख़म-दार के आगे