मिरे बुत-ख़ाने से हो कर चला जा काबे को ज़ाहिद
ब-ज़ाहिर फ़र्क़ है बातिन में दोनों एक रस्ते हैं
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अब तो नहीं आसरा किसी का
क़ैद में इतना ज़माना हो गया
याद है पहले-पहल की वो मुलाक़ात की बात
गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
मोहब्बत क्या बढ़ी है वहम बाहम बढ़ते जाते हैं
उन को दिल दे के पशेमानी है
हाए अब कौन लगी दिल की बुझाने आए
लिख दे आमिल कोई ऐसा ता'वीज़
जो काबे से निकले जगह दैर में की
सुब्ह को आए हो निकले शाम के
इसी ख़याल से तर्क उन की चाह कर न सके
जान ही जाए तो जाए दर्द-ए-दिल