काबा के ढाने वाले वो और लोग होंगे
हम कुफ़्र जानते हैं दिल तोड़ना किसी का
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ज़ाहिद को रट लगी है शराब-ए-तुहूर की
बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है
न आ जाए किसी पर दिल किसी का
यूँ उठा दे हमारे जी से ग़रज़
क़ैद में इतना ज़माना हो गया
हो तर्क किसी से न मुलाक़ात किसी की
याद है पहले-पहल की वो मुलाक़ात की बात
बोसा-ए-रुख़्सार पर तकरार रहने दीजिए
हुए इश्क़ में इम्तिहाँ कैसे कैसे
पहुँचे उस को सलाम मेरा
वस्ल में आपस की हुज्जत और है
मिरे बुत-ख़ाने से हो कर चला जा काबे को ज़ाहिद