जो काबे से निकले जगह दैर में की
मिले इन बुतों को मकाँ कैसे कैसे
Mohsin Naqvi
Allama Iqbal
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दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के
याद आईं उस को देख के अपनी मुसीबतें
क़ैद में इतना ज़माना हो गया
'हफ़ीज़' वस्ल में कुछ हिज्र का ख़याल न था
उन को दिल दे के पशेमानी है
शब-ए-विसाल ये कहते हैं वो सुना के मुझे
यही मसअला है जो ज़ाहिदो तो मुझे कुछ इस में कलाम है
दिल है तो तिरे वस्ल के अरमान बहुत हैं
याद है पहले-पहल की वो मुलाक़ात की बात
जान ही जाए तो जाए दर्द-ए-दिल
मोहब्बत क्या बढ़ी है वहम बाहम बढ़ते जाते हैं
अदा परियों की सूरत हूर की आँखें ग़ज़ालों की