हाल मेरा भी जा-ए-इबरत है
अब सिफ़ारिश रक़ीब करते हैं
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यूँ उठा दे हमारे जी से ग़रज़
क़ासिद ख़िलाफ़-ए-ख़त कहीं तेरा बयाँ न हो
लुट गया वो तिरे कूचे में धरा जिस ने क़दम
मोहब्बत क्या बढ़ी है वहम बाहम बढ़ते जाते हैं
जान ही जाए तो जाए दर्द-ए-दिल
याद आईं उस को देख के अपनी मुसीबतें
कहा ये किस ने कि वादे का ए'तिबार न था
आग़ाज़-ए-मोहब्बत में बरसों यूँ ज़ब्त से हम ने काम लिया
हसीनों से फ़क़त साहिब-सलामत दूर की अच्छी
चाक-ए-दामाँ न रहा चाक-ए-गरेबाँ न रहा
दुनिया में यूँ तो हर कोई अपनी सी कर गया