बुरा ही क्या है बरतना पुरानी रस्मों का
कभी शराब का पीना भी क्या हलाल न था
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दिल इस लिए है दोस्त कि दिल में है जा-ए-दोस्त
ये सब कहने की बातें हैं कि ऐसा हो नहीं सकता
तमसील ओ इस्तिआरा ओ तश्बीह सब दुरुस्त
कोई जहाँ में न यारब हो मुब्तला-ए-फ़िराक़
ज़ाहिद को रट लगी है शराब-ए-तुहूर की
गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
सच है इस एक पर्दे में छुपते हैं लाख ऐब
जब मिला कोई हसीं जान पर आफ़त आई
ख़राब-ओ-ख़स्ता हुए ख़ाक में शबाब मिला
क़सम निबाह की खाई थी उम्र भर के लिए
उन की ये ज़िद कि मिरे घर में न आए कोई
आशिक़ की बे-कसी का तो आलम न पूछिए