अख़ीर वक़्त है किस मुँह से जाऊँ मस्जिद को
तमाम उम्र तो गुज़री शराब-ख़ाने में
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आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो
शिकवा करते हैं ज़बाँ से न गिला करते हैं
ज़ाहिद शराब-ए-नाब हो या बादा-ए-तुहूर
गो ये रखती नहीं इंसान की हालत अच्छी
याद आईं उस को देख के अपनी मुसीबतें
चाक-ए-दामाँ न रहा चाक-ए-गरेबाँ न रहा
पत्थर से न मारो मुझे दीवाना समझ कर
करना जो मोहब्बत का इक़रार समझ लेना
दिल में हैं वस्ल के अरमान बहुत
गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
तंदुरुस्ती से तो बेहतर थी मिरी बीमारी
बताऊँ क्या किसी को मैं कि तुम क्या चीज़ हो क्या हो