आशिक़ की बे-कसी का तो आलम न पूछिए
मजनूँ पे क्या गुज़र गई सहरा गवाह है
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पी लो दो घूँट कि साक़ी की रहे बात 'हफ़ीज़'
गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
दिल इस लिए है दोस्त कि दिल में है जा-ए-दोस्त
ज़ाहिद शराब-ए-नाब हो या बादा-ए-तुहूर
शब-ए-विसाल लगाया जो उन को सीने से
अफ़्सुर्दगी-ए-दिल से ये रंग है सुख़न में
यूँ तो हसीन अक्सर होते हैं शान वाले
अब तो नहीं आसरा किसी का
कोई जहाँ में न यारब हो मुब्तला-ए-फ़िराक़
जाओ भी जिगर क्या है जो बेदाद करोगे
क़सम निबाह की खाई थी उम्र भर के लिए
इस को समझो न ख़त्त-ए-नफ़्स 'हफ़ीज़'