आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो
इक तवज्जोह चाहिए इंसाँ को इंसाँ की तरफ़
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जो दीवानों ने पैमाइश की है मैदान-ए-क़यामत की
बहुत दूर तो कुछ नहीं घर मिरा
वस्ल में आपस की हुज्जत और है
ख़ुद-ब-ख़ुद आँख बदल कर ये सवाल अच्छा है
इधर होते होते उधर होते होते
कहीं मरने वाले कहा मानते हैं
दिल को इसी सबब से है इज़्तिराब शायद
काबा के ढाने वाले वो और लोग होंगे
याद है पहले-पहल की वो मुलाक़ात की बात
शब-ए-विसाल लगाया जो उन को सीने से
उन को दिल दे के पशेमानी है
किसी को देख कर बे-ख़ुद दिल-ए-काम हो जाना