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यूँ उठा दे हमारे जी से ग़रज़ - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

यूँ उठा दे हमारे जी से ग़रज़

यूँ उठा दे हमारे जी से ग़रज़

हो न तेरे सिवा किसी से ग़रज़

वो मनाएगा जिस से रूठे हो

हम को मिन्नत से आजिज़ी से ग़रज़

ये भी एहसान है क़नाअत का

अपनी अटकी नहीं किसी से ग़रज़

ये महल भी मक़ाम-ए-इबरत है

आदमी को हो आदमी से ग़रज़

दर्द-मंदों को क्या दवा से काम

ग़म-नसीबों को क्या ख़ुशी से ग़रज़

हुस्न आराइशों का हो मुहताज

उस को आईने आरसी से ग़रज़

चूर हैं नश्शा-ए-मोहब्बत में

मय से मतलब न मय-कशी से ग़रज़

देर तक दीद के मज़े लूटे

ख़ूब निकली ये बे-ख़ुदी से ग़रज़

बे-नियाज़ी की शान ही ये नहीं

उस को बंदों की बंदी से ग़रज़

तेरी ख़ातिर अज़ीज़ है वर्ना

मुझ को दुश्मन की दोस्ती से ग़रज़

हम मोहब्बत के बंदे हैं वाइ'ज़

हम को क्या बहस मज़हबी से ग़रज़

दैर हो का'बा हो कलीसा हो

उस की धुन उस की बंदगी से ग़रज़

शैख़ को इस क़दर पिलाते क्यूँ

मय-कशों को थी दिल-लगी से ग़रज़

उस को समझो न हज़्ज़-ए-नफ़स 'हफ़ीज़'

और ही कुछ है शाइ'री से ग़रज़

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