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उस को आज़ादी न मिलने का हमें मक़्दूर है - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

उस को आज़ादी न मिलने का हमें मक़्दूर है

उस को आज़ादी न मिलने का हमें मक़्दूर है

हम इधर मजबूर हैं और वो इधर मजबूर है

शब को छुप कर आइए आना अगर मंज़ूर है

आप के घर से हमारा घर ही कितनी दूर है

लाख मिन्नत की मगर इक बात भी मुँह से न की

आप की तस्वीर भी कितनी बड़ी मग़रूर है

इस अँधेरी रात में ऐ शैख़ पहचानेगा कौन

बंद है मस्जिद का दर तो मय-कदा क्या दूर है

एक रश्क-ए-ग़ैर का सदमा तो उठ सकता नहीं

और जो फ़रमाइए सब कुछ हमें मंज़ूर है

मर गया दुश्मन तो उस का सोग तुम को क्या ज़रूर

कौन सी ये रस्म है ये कौन सा दस्तूर है

ज़ाहिद इस उम्मीद पर मिलना हसीनों से न छोड़

ख़ुल्द में नादान तेरे ही लिए क्या हूर है

हश्र के दिन क्या कहेंगे ये अगर आया ख़याल

शिकवा करना यार का पास-ए-वफ़ा से दूर है

कुछ 'हफ़ीज़' ऐसा नहीं जिस से कि तुम वाक़िफ़ न हो

आदमी वो तो बहुत मारूफ़ है मशहूर है

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