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उन की ये ज़िद कि मिरे घर में न आए कोई - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

उन की ये ज़िद कि मिरे घर में न आए कोई

उन की ये ज़िद कि मिरे घर में न आए कोई

अपनी ही हट कि मुझे ख़ुद ही बुलाए कोई

वस्ल में हाए बिगड़ कर ये किसी का कहना

हाथ टूटें जो हमें हाथ लगाए कोई

हश्र में देख के आमादा-ए-फ़रियाद मुझे

कहते हैं तंज़ से अब इन को मिटाए कोई

अस्ल और नक़्ल में क्या फ़र्क़ है खुल जाए अभी

तेरी तस्वीर जो यूसुफ़ से मिलाए कोई

क्यूँ फ़लक हम को मिटाए जो तुम इतनी कह दो

ग़म-ज़दों को न मोहब्बत के सताए कोई

उन की रग रग में ज़माने की भरी हैं घातें

भूली सूरत पे हसीनों की न जाए कोई

हाए झुँझला के शब-ए-वस्ल किसी का कहना

नींद आती है हमें अब न जगाए कोई

बुत-कदे में तो ये शक्लें भी नज़र आती हैं

शैख़ का'बे में धरा क्या है कि जाए कोई

पारसाई में भी नफ़रत है रुखाई से 'हफ़ीज़'

थोड़ी पी लें जो मोहब्बत से पिलाए कोई

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