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उन को दिल दे के पशेमानी है - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

उन को दिल दे के पशेमानी है

उन को दिल दे के पशेमानी है

ये भी इक तरह की नादानी है

वस्ल से आज नया है इंकार

तुम ने कब बात मिरी मानी है

आप देते हैं तसल्ली किस को

हम ने अब और ही कुछ ठानी है

हाल बिन पूछे कहे जाता हूँ

अपने मतलब की ये नादानी है

किस क़दर बार हूँ ग़म-ख़्वारों पर

क्या सुबुक मेरी गिराँ-जानी है

घर बुला कर वो मुझे लौटते हैं

ये नई तरह की मेहमानी है

हम से वहशत की न ले ओ मजनूँ

हम ने भी ख़ाक बहुत छानी है

ख़ाक उड़ती है जिधर जाता हूँ

क्या मुक़द्दर की परेशानी है

घर भी वीराना नज़र आता है

हाए क्या बे-सर-ओ-सामानी है

आई क्यूँ उन की शिकायत लब तक

हम को ख़ुद उस की पशेमानी है

कहीं दो दिन न रहा जम के 'हफ़ीज़'

एक आवारा है सैलानी है

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