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पत्थर से न मारो मुझे दीवाना समझ कर - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

पत्थर से न मारो मुझे दीवाना समझ कर

पत्थर से न मारो मुझे दीवाना समझ कर

आया हूँ इधर कूचा-ए-जानाना समझ कर

कहते हैं ये रोने से लगी दिल की बुझेगी

समझाते हैं अपना मुझे परवाना समझ कर

मैं वो हूँ कि सेरी मुझे होती नहीं मय से

देना मिरे साक़ी मुझे पैमाना समझ कर

नख़वत से जो इक बात न सुनते थे हमारी

ख़ुद छेड़ रहे हैं हमें दीवाना समझ कर

हम उन के हैं दिल उन का है जाँ उन की है लेकिन

फिर मुँह को छुपाते हैं वो बेगाना समझ कर

रक्खा न कहीं का हमें बर्बादी-ए-दिल ने

अरमान ठहरते नहीं वीराना समझ कर

देख आप से बाहर न हो मंसूर की सूरत

करना है तो कर नारा-ए-मस्ताना समझ कर

हम और ही कुछ ढूँडते फिरते हैं बुतों में

बुत-ख़ाने में जाते नहीं बुत-ख़ाना समझ कर

ख़ूबाँ से पटे या न पटे वस्ल का सौदा

दिल पहले ही ले लेते हैं बैआना समझ कर

साक़ी की जो आँखों को हुई बज़्म में गर्दिश

हम लौट गए गर्दिश-ए-पैमाना समझ कर

कह जाते 'हफ़ीज़' उन को हो तुम जोश में क्या कुछ

वो तरह दिए जाते हैं दीवाना समझ कर

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