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करना जो मोहब्बत का इक़रार समझ लेना - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

करना जो मोहब्बत का इक़रार समझ लेना

करना जो मोहब्बत का इक़रार समझ लेना

इक बार नहीं उस को सौ बार समझ लेना

हम हों कि अदू उस में जो ज़ुल्म का शाकी हो

करता ही नहीं तुम को वो प्यार समझ लेना

मर जाए मगर जाना उस की न अयादत को

तुम जिस को मोहब्बत का बीमार समझ लेना

बन बन के बिगड़ता है वो काम मोहब्बत में

आसान नहीं जिस को दुश्वार समझ लेना

ग़फ़लत-कदा-ए-हस्ती जब कहते हैं आलम को

सौदा है फिर अपने को हुशियार समझ लेना

महफ़िल में रक़ीबों की जाना है अगर तुम को

सूरत से मुझे अपनी बेज़ार समझ लेना

दिल पर तो लगाते हो तुम तीर-ए-नज़र लेकिन

आहों को हमारी भी तलवार समझ लेना

छेड़ा जो मिरे आगे फिर तज़किरा-ए-दुश्मन

रक्खी हुई है मुझ से तकरार समझ लेना

पोशीदा 'हफ़ीज़' इस में असरार-ए-मोहब्बत हैं

आसान नहीं मेरे अशआ'र समझ लेना

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