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हसीनों से फ़क़त साहिब-सलामत दूर की अच्छी - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

हसीनों से फ़क़त साहिब-सलामत दूर की अच्छी

हसीनों से फ़क़त साहिब-सलामत दूर की अच्छी

न उन की दोस्ती अच्छी न उन की दुश्मनी अच्छी

ज़माना फ़स्ल-ए-गुल का और आग़ाज़-ए-शबाब अपना

अभी से तू ने तौबा की भी ऐ ज़ाहिद कही अच्छी

जफ़ा-दोस्त उस को कहता है कोई कोई वफ़ा-दुश्मन

हमारे साथ तो उस ने निबाही दोस्ती अच्छी

तिरी ख़ातिर से ज़ाहिद हम ने तौबा आज की वर्ना

घड़ी भर ग़म ग़लत करने को बस वो चीज़ थी अच्छी

ज़ियादा ऐ फ़लक दे रंज-ओ-राहत हम को जो कुछ दे

न दो दिन का ये ग़म अच्छा न दो दिन की ख़ुशी अच्छी

कभी जब हाथ मल कर उन से कहता हूँ कि बे-बस हूँ

तो वो हँस कर ये कहते हैं तुम्हारी बेबसी अच्छी

जो सच पूछो हसीनों का हया ने रख लिया पर्दा

निकल चलते घरों से ये तो होती दिल-लगी अच्छी

हम आएँ आप में या-रब वो जिस दम आएँ बालीं पर

हुजूम-ए-रंज-ए-तन्हाई से है ये बे-ख़ुदी अच्छी

मोहब्बत के मज़े से दिल नहीं है आश्ना जिस का

न उस की ज़िंदगी अच्छी न उस की मौत ही अच्छी

वो मय-कश हूँ कि दे कर दूनी क़ीमत सब की सब ले ली

किसी से जब सुना मैं ने कि भट्टी में खिंची अच्छी

उसे दुनिया की सौ फ़िक्रें हमें इक रंग-ए-नादारी

कहीं मुनइम की दौलत से हमारी मुफ़्लिसी अच्छी

ख़ुशी के ब'अद ग़म का सामना होना क़यामत है

जो ग़म के ब'अद हासिल हो वो अलबत्ता ख़ुशी अच्छी

न छूटेगी मोहब्बत ग़ैर की हम से न छूटेगी

अजी ये बात तुम ने आज तो खुल कर कही अच्छी

हमारे दीदा-ओ-दिल में हज़ारों ऐब निकलेंगे

तुम्हारा आइना अच्छा तुम्हारी आरसी अच्छी

तिरे इस जुब्बा-ओ-दस्तार से रिंदों को क्या मतलब

जिसे जो वज़्अ हो मर्ग़ूब ऐ ज़ाहिद वही अच्छी

कहे सौ शेर तुम ने सुस्त तो हासिल 'हफ़ीज़' इस का

ग़ज़ल हो चुस्त छोटी सी तो बैतों की कमी अच्छी

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