'हफ़ीज़' वस्ल में कुछ हिज्र का ख़याल न था
'हफ़ीज़' वस्ल में कुछ हिज्र का ख़याल न था
वफ़ूर-ए-ऐश में अंदेशा-ए-मआल न था
बुरा ही क्या है बरतना पुरानी रस्मों का
कभी शराब का पीना भी क्या हलाल न था
नया है अब के बरस कुछ बहार का आलम
जुनूँ का ज़ोर तो ऐसा गुज़िश्ता-साल न था
ख़याल तुम ने दिलाया जो गुज़री बातों का
मलाल अब वो हुआ पहले जो मलाल न था
वो दिन हैं याद कि बरसों थी ख़ुद-फ़रामोशी
ये धुन किसी की थी अपना भी कुछ ख़याल न था
तुम आ गए कि मिरी जान बच गई वर्ना
कुछ आज मौत के आने में एहतिमाल न था
कोई तो वज्ह-ए-मसर्रत है गो कहें न कहें
कि यूँ 'हफ़ीज़' का चेहरा कभी बहाल न था
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