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दिल को इसी सबब से है इज़्तिराब शायद - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

दिल को इसी सबब से है इज़्तिराब शायद

दिल को इसी सबब से है इज़्तिराब शायद

क़ासिद फिरा है ले कर ख़त का जवाब शायद

आँखें चढ़ी हुई हैं बातें हैं बहकी बहकी

आए हो तुम कहीं से पी कर शराब शायद

क्या जाने किस हवा में इतना उभर रहा है

हस्ती नहीं समझता अपनी हबाब शायद

मुझ पर जो वो सहर से इस दर्जा मेहरबाँ हैं

शब की दुआ हुई है कुछ मुस्तजाब शायद

बीमार हूँ बंधी है धुन रात-दिन सफ़र की

ग़ुर्बत में अपनी मिट्टी होगी ख़राब शायद

पिछले से वस्ल की शब आसार सुब्ह के हैं

निकलेगा रात ही से आज आफ़्ताब शायद

आया बहुत दिनों पर ज़ाहिद जो मय-कदे में

भूली हुई थी उस को राह-ए-सवाब शायद

बरसात की कमी से क्या क़द्र घट गई है

ऐसी कभी बिकी हो अर्ज़ां शराब शायद

अपने दिमाग़ में तो अब ये बसी हुई है

बेहतर तिरे पसीने से हो गुलाब शायद

बज़्म-ए-अदू में आ कर जिस तरह हम जले हैं

दोज़ख़ में हो किसी पर ऐसा अज़ाब शायद

अश्कों से तर हुई थी यूँ रात सेज उन की

याद आ गया था कोई हंगाम-ए-ख़्वाब शायद

ऐ शैख़ तू मिला कर देख उन से उम्र अपनी

हूरों का ढल गया हो अब तो शबाब शायद

तौबा 'हफ़ीज़' मय का पड़ जाए जिस को चसका

फिर उस से मरते दम तक छूटे शराब शायद

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