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चाक-ए-दामाँ न रहा चाक-ए-गरेबाँ न रहा - हफ़ीज़ जौनपुरी कविता - Darsaal

चाक-ए-दामाँ न रहा चाक-ए-गरेबाँ न रहा

चाक-ए-दामाँ न रहा चाक-ए-गरेबाँ न रहा

फिर भी पोशीदा मिरा हाल-ए-परेशाँ न रहा

बज़्म-ए-दुश्मन न कभी दरहम-ओ-बरहम देखी

क्या तिरा दौर वो ऐ गर्दिश-ए-दौराँ न रहा

मुझ को अफ़्सोस कि वो और अदू के बस में

उस को ये ग़म कि मिरा अब कोई पुरसाँ न रहा

हम ने जो बात कही थी वही आख़िर को हुई

तुम ने जो राज़ छुपाया था वो पिन्हाँ न रहा

मुन्फ़इल तर्क-ए-वफ़ा ने मुझे बरसों रक्खा

चार दिन अपने किए पर वो पशेमाँ न रहा

उन की शोख़ी भी हुई है मिरी वहशत का जवाब

हाथ डाला जो गरेबाँ में गरेबाँ न रहा

बन गई दाग़ कलेजे का तमन्ना-ए-विसाल

दाग़-ए-हसरत के सिवा अब कोई अरमाँ न रहा

ख़ैर सब क़ौल-ओ-क़सम झूट सही ख़ुश रहिए

अब मिरे आप के वो अहद वो पैमाँ न रहा

रोकने को मुझे ग़ैरत के सिवा इस दर पर

कोई दरबाँ न रहा कोई निगहबाँ न रहा

मिट गया शग़्ल-ए-जुनूँ अब वो कहाँ जामा-दरी

ज़ोर वहशत का भी अब दस्त-ओ-गरेबाँ न रहा

चार झिड़की में तिरे दर से अलग हो बैठा

ग़ैर कुछ रोज़ भी मिन्नत-कश-ए-दरबाँ न रहा

वक़्त को हाथ से खो कर कोई दुनिया में 'हफ़ीज़'

उम्र-भर मेरी तरह सर-ब-गरेबाँ न रहा

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