सुकून-ए-ज़िंदगी तर्क-ए-अमल का नाम है शायद
न ख़ुश होता हूँ आसाँ से न घबराता हूँ मुश्किल से
जुदाई पर भी हुस्न-ओ-इश्क़ की वाबस्तगी देखो
कि मजनूँ आह करता है धुआँ उठता है महमिल से
Gulzar
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मुद्दतों तक जो पढ़ाया किया उस्ताद मुझे
दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ
अहल-ए-ज़बाँ तो हैं बहुत कोई नहीं है अहल-ए-दिल
ज़िंदगी का लुत्फ़ भी आ जाएगा
कोई चारा नहीं दुआ के सिवा
उन को जिगर की जुस्तुजू उन की नज़र को क्या करूँ
अभी मीआद बाक़ी है सितम की
वफ़ा जिस से की बेवफ़ा हो गया
शाएर
ये क्या मक़ाम है वो नज़ारे कहाँ गए
ख़ून बन कर मुनासिब नहीं दिल बहे