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इरशाद की याद में - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

इरशाद की याद में

इक बार फिर वतन में गया जा के आ गया

लख़्त-ए-जिगर को ख़ाक में दफ़ना के आ गया

हर हम-सफ़र पे ख़िज़्र का धोका हुआ मुझे

आब-ए-बक़ा की राह से कतरा के आ गया

हूर-ए-लहद ने छीन लिया तुझ को और मैं

अपना सा मुँह लिए हुए शरमा के आ गया

दिल ले गया मुझे तिरी तुर्बत पे बार बार

आवाज़ दे के बैठ के उक्ता के आ गया

रोया कि था जहेज़ तिरा वाजिब-उल-अदा

मेंह मोतियों का क़ब्र पे बरसा के आ गया

मेरी बिसात क्या थी हुज़ूर-ए-रज़ा-ए-दोस्त

तिनका सा एक सामने दरिया के आ गया

अब के भी रास आई न हुब्ब-ए-वतन 'हफ़ीज़'

अब के भी एक तीर-ए-क़ज़ा खा के आ गया

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