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एक लड़की शादाँ - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

एक लड़की शादाँ

इक लड़की थी छोटी सी

दुबली सी और मोटी सी

नन्ही सी और मुन्नी सी

बिल्कुल ही थन मथनी सी

उस के बाल थे काले से

सीधे घुँघराले से

मुँह पर उस के लाली सी

चट्टी सी मटियाली सी

उस की नाक पकोड़ी सी

नोकीली सी चौड़ी सी

आँखें काली नीली सी

सुर्ख़ सफ़ेद और पीली सी

कपड़े उस के थैले से

उजले से और मैले से

ये लड़की थी भोली सी

बी बी सी और गोली सी

हर दम खेल था काम उस का

शादाँ बी-बी नाम था उस का

हँसती थी और रोती थी

जागती थी और सोती थी

हर दम उस की अम्माँ-जान

खींचा करती उस के कान

कहती थीं मकतब को जा

खेलों में मत वक़्त गँवा

अम्मी सब कुछ कहती थी

शादाँ खेलती रहती थी

इक दिन शादाँ खेल में थी

आए उस के अब्बा जी

वो लाहौर से आए थे

चीज़ें वीज़ें लाए थे

बॉक्स में थीं ये चीज़ें सब

ख़ैर तमाशा देखो अब

अब्बा ने आते ही कहा

शादाँ आ कुछ पढ़ के सुना

गुम थी इक मुद्दत से किताब

क्या देती इस वक़्त जवाब

दो बहनें थीं शादाँ की

छोटी नन्ही मुन्नी सी

नाम था मंझली का सीमाँ

गुड़िया सी नन्ही नादाँ

वो बोली ऐ अब्बा जी

अब तो पढ़ती हूँ मैं भी

बिल्ली है सी ए टी कैट

चूहा है आर ए टी रैट

मुँह माउथ है नाक है नोज़

और गुलाब का फूल है रोज़

मैं ने अब्बा जी देखा

ख़ूब सबक़ है याद किया

शादाँ ने उस वक़्त कहा

मैं ने ही तो सिखाया था

लेकिन अब्बा ने चुप चाप

खोला बॉक्स को उठ कर आप

इस में जो चीज़ें निकलें

सारी सीमाँ को दे दें

इक चीनी की गुड़िया थी

इक जादू की पुड़िया थी

इक नन्ही सी थी मोटर

आप ही चलती थी फ़र-फ़र

गेंदों का इक जोड़ा था

इक लकड़ी का घोड़ा था

इक सीटी थी इक बाजा

एक था मिट्टी का राजा

शादाँ को कुछ भी न मिला

यानी खेल की पाई सज़ा

अब वो ग़ौर से पढ़ती है

पूरे तौर से पढ़ती है

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