ये और दौर है अब और कुछ न फ़रमाए
ये और दौर है अब और कुछ न फ़रमाए
मगर 'हफ़ीज़' को ये बात कौन समझाए
वफ़ा का जोश तो करता चला गया मदहोश
क़दम क़दम पे मुझे दोस्त होश में लाए
परी-रुख़ों की ज़बाँ से कलाम सुन के मिरा
बहुत से लोग मिरी शक्ल देखने आए
बहिश्त में भी मिला है मुझे अज़ाब-ए-शदीद
यहाँ भी मौलवी-साहब हैं मेरे हम-साए
अज़ाब-ए-क़ब्र से बद-तर सही हयात-ए-'हफ़ीज़'
ये जब्र है तो ब-जुज़-सब्र क्या किया जाए
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