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मुझे शाद रखना कि नाशाद रखना - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

मुझे शाद रखना कि नाशाद रखना

मुझे शाद रखना कि नाशाद रखना

मिरे दीदा ओ दिल को आबाद रखना

भुलाई नहीं जा सकेंगी ये बातें

तुम्हें याद आएँगे हम याद रखना

वो नाशाद ओ बर्बाद रखते हैं मुझ को

इलाही उन्हें शाद ओ आबाद रखना

तुम्हें भी क़सम है कि जो सर झुका दे

उसी को तह-ए-तेग़-ए-बेदाद रखना

मिलेंगे तुम्हें राह में बुत-कदे भी

ज़रा अपने अल्लाह को याद रखना

जहाँ भी नशे में क़दम लड़खड़ाएँ

वहीं एक मस्जिद की बुनियाद रखना

सितारों पे चलते हुए इब्न-ए-आदम

नज़र में फ़रिश्तों की उफ़्ताद रखना

'हफ़ीज़' अपने अफ़्कार की सादगी को

तकल्लुफ़ की उलझन से आज़ाद रखना

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