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मिल जाए मय तो सज्दा-ए-शुकराना चाहिए - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

मिल जाए मय तो सज्दा-ए-शुकराना चाहिए

मिल जाए मय तो सज्दा-ए-शुकराना चाहिए

पीते ही एक लग़्ज़िश-ए-मस्ताना चाहिए

हाँ एहतिराम-ए-का'बा-ओ-बुत-ख़ाना चाहिए

मज़हब की पोछिए तो जुदागाना चाहिए

रिंदान-ए-मय-परस्त सिया-मस्त ही सही

ऐ शैख़ गुफ़्तुगू तो शरीफ़ाना चाहिए

दीवानगी है अक़्ल नहीं है कि ख़ाम हो

दीवाना हर लिहाज़ से दीवाना चाहिए

इस ज़िंदगी को चाहिए सामान-ए-ज़िंदगी

कुछ भी न हो तो शीशा-ओ-पैमाना चाहिए

ओ नंग-ए-ए'तिबार दुआ पर न रख मदार

ओ बेवक़ूफ़ हिम्मत-ए-मर्दाना चाहिए

रहने दे जाम-ए-जम मुझे अंजाम-ए-जम सुना

खुल जाए जिस से आँख वो अफ़्साना चाहिए

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