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मौत के चेहरे पे है क्यूँ मुर्दनी छाई हुई - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

मौत के चेहरे पे है क्यूँ मुर्दनी छाई हुई

मौत के चेहरे पे है क्यूँ मुर्दनी छाई हुई

देखना कौन आ गया क्यूँ टल गई आई हुई

कोई बदली तो नहीं उभरी उफ़ुक़ पर देखना

फिर फ़ज़ा-ए-तौबा पर है बे-दिली छाई हुई

सीख दुनिया ही में ज़ाहिद हूर से मिलने के ढंग

वर्ना रोएगा कि जन्नत में भी रुस्वाई हुई

ख़ाना-ए-दिल में किसी पर्दा-नशीं की आरज़ू

आरज़ू क्या है दुल्हन बैठी है शर्माई हुई

इश्क़ है अपनी वफ़ाओं से भी शरमाया हुआ

अक़्ल है अपनी ख़ताओं पर भी इतराई हुई

काश इस मिस्रा का तुम को पास होता ऐ 'हफ़ीज़'

ये बहार आई हुई ऐसी घटा छाई हुई

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