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जहाँ क़तरे को तरसाया गया हूँ - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

जहाँ क़तरे को तरसाया गया हूँ

जहाँ क़तरे को तरसाया गया हूँ

वहीं डूबा हुआ पाया गया हूँ

ब-हाल-ए-गुमरही पाया गया हूँ

हरम से दैर में लाया गया हूँ

बला काफ़ी न थी इक ज़िंदगी की

दोबारा याद फ़रमाया गया हूँ

ब-रंग-ए-लाला-ए-वीराना बेकार

खिलाया और मुरझाया गया हूँ

अगरचे अब्र-ए-गौहर-बार हूँ मैं

मगर आँखों से बरसाया गया हूँ

सुपुर्द-ए-ख़ाक ही करना था मुझ को

तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ

फ़रिश्ते को न मैं शैतान समझा

नतीजा ये कि बहकाया गया हूँ

कोई सनअत नहीं मुझ में तो फिर क्यूँ

नुमाइश-गाह में लाया गया हूँ

ब-क़ौल-ए-बरहमन क़हर-ए-ख़ुदा हूँ

बुतों के हुस्न पर ढाया गया हूँ

मुझे तो इस ख़बर ने खो दिया है

सुना है मैं कहीं पाया गया हूँ

'हफ़ीज़' अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे

बड़े ज़ोरों से मनवाया गया हूँ

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