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इश्क़ ने हुस्न की बे-दाद पे रोना चाहा - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

इश्क़ ने हुस्न की बे-दाद पे रोना चाहा

इश्क़ ने हुस्न की बे-दाद पे रोना चाहा

तुख़्म-ए-एहसास-ए-वफ़ा संग में बोना चाहा

आने वाले किसी तूफ़ान का रोना रो कर

ना-ख़ुदा ने मुझे साहिल पे डुबोना चाहा

संग-दिल क्यूँ न कहें बुत-कदे वाले मुझ को

मैं ने पत्थर का परस्तार न होना चाहा

हज़रत-ए-शैख़ न समझे मिरे दिल की क़ीमत

ले के तस्बीह के रिश्ते में पिरोना चाहा

कोई मज़कूर न था ग़ैर का लेकिन तुम ने

बातों बातों में ये नश्तर भी चुभोना चाहा

दीदा-ए-तर से भी सरज़द हुआ इक जुर्म-ए-अज़ीम

हश्र में नामा-ए-आमाल को धोना चाहा

मरते मरते भी तवक़्क़ो रही दिलदारी की

रख के सर ज़ानू-ए-तक़दीर पे सोना चाहा

हाए किस दर्द से की ज़ब्त की तल्क़ीन मुझे

हँस पड़े दोस्त जो मैं ने कभी रोना चाहा

जिंस-ए-शोहरत बहुत अर्ज़ां थी मगर मैं ने 'हफ़ीज़'

दौलत-ए-दर्द को बे-कार न खोना चाहा

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