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इन गेसुओं में शाना-ए-अरमाँ न कीजिए - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

इन गेसुओं में शाना-ए-अरमाँ न कीजिए

इन गेसुओं में शाना-ए-अरमाँ न कीजिए

ख़ून-ए-जिगर से दावत-ए-मिज़्गाँ न कीजिए

मर जाइए न कीजिए ज़िक्र-ए-बहिश्त-ओ-हूर

अब ख़्वाब को भी ख़्वाब-ए-परेशाँ न कीजिए

बाक़ी हो जो भी हश्र यहीं पर उठाइए

मरने के ब'अद ज़ीस्त का सामाँ न कीजिए

दोज़ख़ को दीजिए न परागंदगी मिरी

शीराज़ा-ए-बहिश्त परेशाँ न कीजिए

शायद यही जहाँ किसी मजनूँ का घर बने

वीराना भी अगर है तो वीराँ न कीजिए

क्या नाख़ुदा बग़ैर कोई डूबता नहीं

मुझ को मिरे ख़ुदा से पशेमाँ न कीजिए

है बुत-कदे में भी उसे ईमान का ख़याल

क्यूँ ए'तिबार-ए-मर्द-ए-मुसलमाँ न कीजिए

हम से ये बार-ए-लुत्फ़ उठाया न जाएगा

एहसाँ ये कीजिए कि ये एहसाँ न कीजिए

आईना देखिए मिरी सूरत न देखिए

मैं आईना नहीं मुझे हैराँ न कीजिए

तू ही अज़ीज़-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब है 'हफ़ीज़'

क्या कीजिए अगर तुझे क़ुर्बां न कीजिए

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