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हयात-ए-जावेदाँ वाले ने मारा - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

हयात-ए-जावेदाँ वाले ने मारा

हयात-ए-जावेदाँ वाले ने मारा

ज़बाँ दे कर ज़बाँ वाले ने मारा

बशर को इस क़फ़स में तंग कर के

ज़मीं ओ आसमाँ वाले ने मारा

निगाहें काम देती हैं न राहें

मकान ओ ला-मकाँ वाले ने मारा

गवारा है दवामी तल्ख़-कामी

किसी मीठी ज़बाँ वाले ने मारा

नसीहत-गर को समझाओ ख़ुदारा

कि इस सूद-ओ-ज़ियाँ वाले ने मारा

कोई हद भी है तस्लीम-ओ-रज़ा की

मुसलसल इम्तिहाँ वाले ने मारा

वो दिल में है दिल आँखों में निहाँ है

निशाँ दे कर निशाँ वाले ने मारा

सू-ए-मंज़िल लिए जाता है ज़ालिम

हमें इस कारवाँ वाले ने मारा

हमेशा के लिए ख़ामोश हो कर

नई तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ वाले ने मारा

मुझे कम-ज़र्फ़ कहलाना पड़ेगा

मता-ए-दो-जहाँ वाले ने मारा

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