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दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ

दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ

मगर लब पर दुआ है और मैं हूँ

न साक़ी है न अब वो शय है बाक़ी

मिरा दौर आ गया है और मैं हूँ

उधर दुनिया है और दुनिया के बंदे

इधर मेरा ख़ुदा है और मैं हूँ

कोई पुरसाँ नहीं पीर-ए-मुग़ाँ का

फ़क़त मेरी वफ़ा है और मैं हूँ

अभी मीआद बाक़ी है सितम की

मोहब्बत की सज़ा है और मैं हूँ

न पूछो हाल मेरा कुछ न पूछो

कि तस्लीम ओ रज़ा है और मैं हूँ

ये तूल-ए-उम्र ना-माक़ूल ओ बे-कैफ़

बुज़ुर्गों की दुआ है और मैं हूँ

लहू के घूँट पीना और जीना

मुसलसल इक मज़ा है और मैं हूँ

'हफ़ीज़' ऐसी फ़लाकत के दिनों में

फ़क़त शुक्र-ए-ख़ुदा है और मैं हूँ

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