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दिल से तिरा ख़याल न जाए तो क्या करूँ - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

दिल से तिरा ख़याल न जाए तो क्या करूँ

दिल से तिरा ख़याल न जाए तो क्या करूँ

मैं क्या करूँ कोई न बताए तो क्या करूँ

उम्मीद-ए-दिल-नशीं सही दुनिया हसीं सही

तेरे बग़ैर कुछ भी न भाए तो क्या करूँ

दिल को ख़ुदा की याद तले भी दबा चुका

कम-बख़्त फिर भी चैन न पाए तो क्या करूँ

दिन हो कि रात एक मुलाक़ात की है बात

इतनी सी बात भी न बन आए तो क्या करूँ

जो कुछ बना दिया है तिरे इंतिज़ार ने!

अब सोचता हूँ तू इधर आए तो क्या करूँ

दीदा-वरान-ए-बुत-कदा इक मशवरा तो दो

काबा झलक यहाँ भी दिखाए तो क्या करूँ

अपनी नफ़ी तो फ़लसफ़ी-जी क़त्ल-ए-नफ़्स है

कहिए कोई ये जुर्म सुझाए तो क्या करूँ

ये हाए हाए मज़्हका-अंगेज़ है तो हो

दिल से उठे ज़बान जलाए तो क्या करूँ

मैं क्या करूँ मैं क्या करूँ गर्दान बन गई

मैं क्या करूँ कोई न बताए तो क्या करूँ

अख़बार से मिरी ख़बर-ए-मर्ग ऐ 'हफ़ीज़'

मेरा ही दोस्त पढ़ के सुनाए तो क्या करूँ

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