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अगर मौज है बीच धारे चला चल - हफ़ीज़ जालंधरी कविता - Darsaal

अगर मौज है बीच धारे चला चल

अगर मौज है बीच धारे चला चल

वगरना किनारे किनारे चला चल

इसी चाल से मेरे प्यारे चला चल

गुज़रती है जैसे गुज़ारे चला चल

तुझे साथ देना है बहरूपियों का

नए से नया रूप धारे चला चल

ख़ुदा को न तकलीफ़ दे डूबने में

किसी नाख़ुदा के सहारे चला चल

पहुँच जाएँगे क़ब्र में पाँव तेरे

पसारे चला चल पसारे चला चल

ये ऊपर का तबक़ा ख़ला ही ख़ला है

हवा ओ हवस के ग़ुबारे चला चल

डुबोया है तू ने हया का सफ़ीना

मिरे दोस्त सीना उभारे चला चल

मुसलसल बुतों की तमन्ना किए जा

मुसलसल ख़ुदा को पुकारे चला चल

यहाँ तो बहर-ए-हाल झुकना पड़ेगा

नहीं तो किसी और द्वारे चला चल

तुझे तो अभी देर तक खेलना है

इसी में तो है जीत हारे चला चल

न दे फ़ुर्सत-ए-दम-ज़दन ओ ज़माने

नए से नया तीर मारे चला चल

शब-ए-तार है ता-ब-सुब्ह-ए-क़यामत

मुक़द्दर है गर्दिश सितारे चला चल

कहाँ से चला था कहाँ तक चलेगा

चला चल मसाफ़त के मारे चला चल

बसीरत नहीं है तो सीरत भी क्यूँ हो

फ़क़त शक्ल ओ सूरत सँवारे चला चल

'हफ़ीज़' इस नए दौर में तुझ को फ़न का

नशा है तो प्यारे उतारे चला चल

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