ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे
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अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
राज़-ए-सर-बस्ता मोहब्बत के ज़बाँ तक पहुँचे
कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
आज की रात
ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के
फिर से आराइश-ए-हस्ती के जो सामाँ होंगे
आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोल कर देखा किए
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
बे-चारगी-ए-हसरत-ए-दीदार देखना
ऐसी भी क्या जल्दी प्यारे जाने मिलें फिर या न मिलें हम
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं