तमाम उम्र किया हम ने इंतिज़ार-ए-बहार
बहार आई तो शर्मिंदा हैं बहार से हम
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तिरी तलाश में जब हम कभी निकलते हैं
ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया
दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त
इक उम्र से हम तुम आश्ना हैं
ऐसी भी क्या जल्दी प्यारे जाने मिलें फिर या न मिलें हम
दिल से आती है बात लब पे 'हफ़ीज़'
ये दिलकशी कहाँ मिरी शाम-ओ-सहर में थी